सुहासिनी , नवागन्तुका -
वही मधुर आवाज़
अनवरत आह्लाद !
क्या कहूँ तुम्हे कुहकनी ?
उड़ान की साधिका !
परिचारिका बाल-मन की !
कोकिल- कुहुक , खगी!
या बंजारन आवाज़ -
दिशाओं का पग फेरा ले
लौट आती ,
अथ से इति के बीच की दूरी तय कर ;
जो चिरंतन गीत गाती !
किसी दूब के टुकड़े पर
आयास धूप सेकते-
अचानक दोहरे कंठ में -
पहाड़ियों के आरोह -अवरोह में
उतरती-तिरती
कहीं दूर से निकट आती
वही स्वर -लहरी .
उतरी शनै : शनै :
बाल मन में गहरी !
जिसके तुतलेपन में छिपी
स्निग्ध , गहन कथाएँ -
मेरे पलों के साथ
लिखती- छपती -
मन का मधुमास हुईं .
लौटकर दस्तक देती
नवागन्तुका , अतिथि -प्रिया
आगमन की आस हुई !
तुम
तुम अमूर्त आवाज़ हो - कुहकनी !
जो एक कंप के साथ बह जाती है -
तंत्री पर तंत्री छेड़ -
टहनियों
शाखों
पत्रों
गुल्मों
हवा
शून्य सन्नाटे के पट पर
मृदंग थाप दे
रहस्यमयी अनुगूँज रह जाती है !
मैं उसी अनुगूँज को -
बंजारन आवाज़ को
ढूंढ़ रही हूँ -
एक बार फिर - कुहकनी , सुहासिनी !
जो आशा की टेर है
दूर अँधेरे में छिपी
उजली सवेर है!
एक बार फिर
उसी दूब के टुकड़े पर
धूप सेकते आयास
पढ़ लेना चाहती हूँ
उलटे पन्नों को !
जिनकी तहों से
फुदक आती है
वही कुहुक !
लौट आती है पदचाप
बनकर बचपन की टुहुक!
और
और पा लेती हूँ मैं
निस्पृह प्रकृति में -
अपनों की भीड़ से विलग
खोया अबोध मन
जीवन का स्वर्णिम क्षण !
वही बचपन की परी-कथा
वही परीलोक
इस धरती पर नापते
अचानक मिल जाता है
जीवन की सांध्य में
किसलय प्रभात -
वही निर्मल राग
जिसमे लिपटा था
शिशु -गात !
अपर्णा
मनुपर्ण
लिखने-पढ़ने का शौक . अधिकतर कविता लिखना ही रहता है पर कभी-कभी कहानियाँ भी लिख लेते हैं . कलाओं में नृत्य, खेलों में टेबल टेनिस में अभिरुचि ....
Tuesday, May 25, 2010
Sunday, May 9, 2010
हाँ , निराश हूँ

हाँ , निराश हूँ मैं !
सुरंगों के गर्भ में
आशाएं दफ़न है ,
निराशाएं
बारूद में लिपटी
शोलों का कफ़न हैं!
जंगल -जंगलात
आतंक से डरे
अपने सर गर्दन में डाले पड़े हैं .
हवाओं ने कस के ओंठ भींच लिए हैं
दर्द रोकने अपना -
समझा लिया है मन को -
चुप !
चुप , पड़ी रहो
पत्तों , शाखों , टहनियों , गुल्मों पर ;
इधर ताल , नदी ,पोखर
धूं-धूं जलने लगे हैं !
निराश हूँ मैं !
हाँ , निराश हूँ !
लड़ने का
निबटने का
प्रशिक्षण नहीं !
कोई बात नहीं
आदी हूँ मैं -
कंधे पर संगीन धरकर
सीने पर छर्रों को झेल लूँगा
उफ़ न करूँगा !
हाँ, पर इधर -
तुमसे बात कर रहा हूँ -
पीठ मत फेरो !
हाँ, इधर
अपनी संसद बनाम जनता से
मुखातिब हूँ -
कह तो रहा हूँ
इस बार नहीं -
इस बार नहीं डरूंगा !
पीछे नहीं हटूंगा !
तुम्हारे हौसले लेकर
घर-द्वार तुम्हे देकर
जलती सुरंगों में उतरूंगा
तुम्हारी खातिर !
पर मैं जानता हूँ
मरणोपरांत
मेरा परिवार एक प्रस्ताव होगा
जनता की आवाज़ होगा
सुर्ख काले अक्षरों का अखबार होगा !
फिर दब जाएगा
किसी फ़ाइल में
लिपटेगा लाल फीते में
बरसों चलेगा सिलसिला -
नयी नौकरी , नयी शहादत
कुछ रकम
न हुआ तो कोई तमगा !
गाँव की झोंपड़ी में
जी रही होगी
अपनी झुर्रियों से लड़ती
याद पलकों पर रखे
बेजुबान
न रखती होगी कोई गिला !
हाँ , फिर भी मैं तैयार हूँ !
सक्षम हूँ
उद्धत हूँ -
बारूद की सुरंगों पर पैर धरने के लिए !
जानता हूँ
ये बियाबान जंगल
दहलता रहेगा !
कई सुरंगों से गुज़र जायेंगे
हवाओं में मौत का सन्नाटा होगा
और इस सन्नाटे से गुजरेगा
इंसानियत का जनाज़ा
जिसके आगे चलने वाला
न कोई रहबर
न पीछे आज़दार होगा !
अपनी पेशानी से पसीना पोंछ दूँ कैसे ?
हाँ, निराश हूँ !
निराश हूँ मैं !
अपर्णा
दो राहें

दो राहें थीं -अलग दिशाएं !
अलग ठाठ दोनों के थे .
दो राहें थीं- लक्ष्य अलग थे !
अलग रहस्य दोनों के थे.
किसको पकडूँ ? किस को छोडूँ ?
अंतर में प्रश्न उठे सारे .
किस अम्बर में सूरज होगा ?
किस नभ में होंगे तारे ?
दो राहें थीं- अलग पकड़ थी .
एक सरल थी एक विरल .
एक बड़ी जानी-पहचानी
चिह्नित खड़ी हुई अविचल.
एक उपेक्षित , अनचिह्नित थी
अलक्षित-सी लगती थी .
वीराने में सुप्त कोई
खंडहर -सी खाली दिखती थी .
एक ज़माने का प्रयोजन .
सदियों का सिंचित आयोजन .
और उधर जो बिना लीक के
पसरी जंगल योजन-योजन .
मैं सोच रही उलझी-उलझी
किस पथ अब चलना होगा ?
लौट सकूँ जिस पथ से वापिस
पकड़ना भर उसको होगा!
फिर आप कदम उठ चले राह पर
जो सबसे अनजाना था .
आज जान इसको भी देखूं
ठिठका जहाँ ज़माना था.
शंकाएँ थीं , डर भी थे.
बचपन से पाले पहरे थे .
पर तोड़ लीक को चलने के
स्वप्न तीव्र और गहरे थे.
बस सपना लेकर बहा गया
जिस पर पवन नहीं दौड़ी.
मुझे देख रुख हवा ने मोड़ा
पीछे वह मेरे होली.
अपर्णा
क्या से क्या हुआ मानव

एक दिन अपने में चुपचाप
सुन रही वासंती पदचाप ,
अचानक मन का ये उल्लास
छू गया किस दुःख को अनजान.
प्रकृति के सीधे उच्छावास ,
छू गए मेरे सब विश्वास.
उसी अंतर में जाने कौन
जुड़ा उसका और मेरा मान.
हरे गलीचों में बुनता
फूल के कोमल -कोमल गात .
वह जाने कौन छिपा बैठा,
पवन की किससे होती बात ?
पंछियों की मीठी -सी तान
छू रही अम्बर के वितान .
लौट कर आती मेरे पास,
सोचती नापूँ किसके साथ ?
तौलना इतना न आसान,
बहुत छोटे हैं मेरे हाथ !
हम पावनता से दूर ,
सिमट कर बैठे दूर किनार .
न जाने क्यों ढोते हैं हम
आज मानव होने का भार .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या था क्या हुआ मानव ?
सुन नहीं सकता कानों से
प्रकृति का सुंदरतम रव.
उलझ कर खोया है मानव
रह गया अपने में नीरव .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या से क्या हुआ मानव.
अपर्णा
जब डर होंगे रुक जाने के

जब डर होंगे रुक जाने के
रुक जायेंगे मेरे अक्षर ,
मेरे भीतर के स्रोत -प्रवाह
बह जायेंगे खाली होकर .
तब कहीं शून्य में उपजेगा
रव जीवन का कौतूहल भर.
जब देखूँगी इन तारों को
रातों की स्याही में खोते
और दूर कहीं पर मेघों की
गागर को रीता होते ,
तब एक बार फिर जी लूँगी
पतझड़ को बाँहों में भर.
जब डर होंगे सब खोने के
रह जाएँगी छायाएँ भर .
छूटेंगे अम्बार सभी ,
पीछे होंगे सब आडम्बर .
तब एक किनारे बैठ कहीं
देखूँगी जीवन -दर्पण .
सिकता पर लहरें आएँगी
गीला होगा पावन आँचल ,
तब शून्य ,रिक्त ,खाली तट पर
कौमुदी सहस्त्र जिलाउंगी .
अपर्णा
वह अकेली
किसी गाँव की पगडण्डी जो
जाती खेतों तक अनजान ,
उन श्यामल खेतों में प्रकटी
सुरबाला थी गाती गान.
सोने जैसे बालों को
वह झुकी हुई थी काट रही ,
अपने श्रम-सीकर ढुलकाती
हीरे-मुक्तक सब बाँट रही.
कभी हवा का एक झकोरा ,
अधरों को छू जाता था ,
गीतों का अस्फुट मधु-सावन
फिर लौट हवा में आता था.
लगता था ऐसा बाँट रही
फूलों को मिश्री-मकरंद,
या खोल रही थी सकुचाये
कलियों के पाटल पाश बंध.
उसके गीतों में कम्पित
दर्द छलक ढुल जाता था ,
नीरवता को तोड़ गीत
घाटी में तिर जाता था .
कौन पास से निकल गया
उसको नहीं तनिक आभास ,
वह झुकी हुई थी काट रही
गीतों की फसलें आयास .
नन्ही श्यामा के कंठों -से
अधिक मुखर हैं उसके गान ,
बहने दो जीवन की धारा
कहते चलने को अविराम .
मानव की पीड़ा छंदों में
शब्द निबद्ध हो जाती है ,
गंगा -सी छलक-छलक बहकर
सूने पुलिन सजाती है.
जब दर्द पराया अपना हो
जाना-पहचाना लगता है ,
तब ममता का मीठा झरना
पत्थर से होकर झरता है.
अपर्णा
सरिता

टेनिसन की ये कविता मेरे मन की नदी बन गयी जब गंगा की धाराएँ , उसका प्रवाह पहली बार अपने होश में देखा . कवि की द ब्रुक मेरे मन की गंगा है , जिसे मैंने अपने तरीके से प्रवाहित किया है. अंग्रेजी की कविता का कुछ अंश टाईप होने से छूट गया है ,उसके लिए माफ़ी चाहूँगी.
कूजित चिड़ियों के गीतों से
लेती हूँ मीठी -सी तान ,
हरित घास को छूकर बहती
मैं सरिता कलकल अनजान .
कभी शैल-कन्दरा में बह
कभी घाटियों से अविराम ,
फिसल गाँव के कोने छूती ,
मैं सरिता कलकल अनजान.
गोल पत्थरों से बतिया कर
हलका मन कर देती हूँ .
दुःख हरकर शीतल पावन कर
उनको शिव कर देती हूँ.
तुम आते हो, तुम जाते हो
मैं बहती ही रहती हूँ .
मेरी बातें , मेरा बहना
नहीं कभी मुझको विश्राम ,
भक्ति-सुधा सी प्रतिपल बहती
मिलने आतुर सागर-धाम.
छोटे-छोटे कितने टापू
राहों में मेरी बिखरे हैं ,
मेरी लहरों से भीग-भीग
उनके सुंदर तट निखरे हैं.
मैं चली हवा के साथ झूम
झागों के फेन बनाती हूँ ,
मैं शंख फूंक कर मंदिर में
देवों को रोज़ जगाती हूँ .
बनमाली बनकर बिरवों की
कान्त-छाँट मैं करती हूँ .
फूलों की आग जलाकर मैं
हवन-कुंड-सी जलती हूँ.
मेरे जग का विस्तृत आँगन
कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं .
तुम बंधे हुए संसारी हो
मेरे जीवन की डोर नहीं .
गल जाती सागर में जाकर
प्रतिपल तुमसे ये कहती हूँ
तुम आते हो तुम जाते हो
पर मैं बहती रहती हूँ.
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