
ये जो चौड़ी सड़क है -
कुछ फर्लांग पर
जो बरगद देख रहे हो -
बस वहीँ उस की छाया में
एक छोटा-सा अहाता खींच
चबूतरे पर
स्थापित किया था माँ तुम्हे
आद्या -शक्ति
दुःख-विनाशिनी !
पेड़ के मूल पर
टकटकी बाँधे
घूरते नारिकेल
आते-जाते चढ़ावे !
अगरु, धूप, दीप
के गोचर भुलावे !
पेड़ की शाखाओं पर
रोली, कुमकुम लगे
लाल गहराए कलावे -
किसी दुखी की
निराश की
खोए की
भूले की
भटके की
मन्नतों के जाले!
कौन-सी मन्नत ?
किसकी?
सारे अंतर भूल
ये बरगद
कैसे टिका खड़ा है!
जैसे साम्राज्यवाद की नींव पर
प्रजातंत्र उठा है!
मंदिर से परे
घिसू-घिसुआ
काली छतरी खोल
बरगद की शाख की
अछूती छाँव में
रोज़ आ बैठता है -
लकड़ी की पेटी
उसमें सजी काली-भूरी
पोलिश की डिबियां
दो-चार ब्रुश
छोटी कीलें
पायताबा
कुछ चमरौधे
गुरगाबियाँ
नाना पैरों के नाप के कटे
चर्म - छिले, घिसे !
अपनी सधी आँखों से
दिनों को गाँठ
फटे-पुराने समय की मरम्मत करता
गाहे-बगाहे
क्षणों के गीत गाता
सालों से यहाँ पड़ा है !
पर अचानक
उस दिन रातों-रात
हमारी सड़क और चौड़ी हो गयी !
मंदिर के अहाते ने भी विस्तार पाया
और पेड़ की अछूती छाया ने
समेट लिए पैर पेट तक !
परवाह करता किसकी कब तक !
उस दिन मैंने पिघला कोलतार तो देखा
दूर तक फैला !
पर पोलिश की डिबिया
कहाँ खो गयी?
उसकी कोई टोह नहीं ?
सूरज का पैंडुलम
झूलता रहा
मौसम-चक्र टिक-टिक कर
किन सुइयों पर घूमता रहा !
पर घिसू तू गाहे-बगाहे भी न दीखा?
मैंने कब से एक धागा बाँध दिया है
बरगद की शाख पर !
भभूत दी है अगरु की राख पर !
इस सन्नाटे की भीड़ में
कहाँ तलाशूँ तुझे ?
इस भीड़ में मेरा इन्सान खो गया है!
तू किस छाँव जाकर सो गया है ?
अपर्णा
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