
आज मैं अलग से कोई कविता नहीं लिख रही हूँ . ये कविता कल की कविता से संवाद के रूप में निकलती गयी और जिस रूप में आई उसे मैं यहाँ लिख रही हूँ -
ये मेरी कविता का अंश है जिसने आगे जाकर क्या मोड़ लिया-
अपने मुहाने खुद बनाती है धार -
रेत को उठाकर
बैठाकर
बहाकर
टकराकर
बिखराकर !
एक हिलोर पर हिलोर
क्षण-क्षण की डोर -
हवा को नदी की चादर पर समतल करती ,
अपने आवेग के साथ ले जाती -
बस एक सतत प्रवाह
अविराम ! ...अविराम ! अविराम !
शिलाओं पर सिर धरकर
पूजती
अर्घ्य देती
समय को चिह्नित करती
निकल जाती है
प्रगल्भा !
पीछे रह जाता है
पनार का बाँकपन
दहाना
उत्स
और
एक कौतूहल
प्रश्न
खोज
विवेक , भाव , उत्तर , निदान
और
समय का फेंका उछाल!!
और पीछे रह जाता है
साथ लगे पर्वत का
कठिन अडिग स्वत्व
जो प्रवाह के विरोधाभासों से
जिस्म छुआकर ...
(क्षण-भर को ही सही)
फिर अविचल खड़ा हो जाता है
संसृति के आदिम उद्देश्य की तरह....
खड़ा रहता है ,अपनी इयत्ता का प्रमाण दे
उस पर झुके आसमान को !!
अप्रभावित !
बहा देता है अपनी गोद के सब प्रपात
सागर से मिलने को ....
शिला खण्डों को होने देता है चूर
ताकि इस रज पर
हो विनिर्मित सुमन-सौरभ का मृदुल हास
और चितेरा संसृति का
सौंप सके -
हमें आदिम उद्देश्य
जो कहीं खो सा गया है
निविड़ में सो -सा गया है!!!!!!!!!!!!!!!!
बांह पसारे
शायद कहता हो
प्रकृति से...
यह लो...
मेरे अंतर की हिलोर...
मेरा बाकी बचा स्वत्व
मेरी आत्मा
यह लो मेरा सबकुछ...
अर्घ्य दिया तुम्हे
यह लो
मेरी आराध्या
यह लो....
आराध्या वरण कर प्रसाद को
बाँट देती है -
सूने पुलिनो पर ,
सैकत पर ,
मैदानों के विस्तीर्ण फैलाव पर ,...
खेतों के आयास
रूखे चेहरों पर ,
शुष्क वन्ध्या धरती पर,
जन-जन के तृषित जीवन पर.
लो सम्पूर्ण हुई पूजा !
अब सोने दो पलभर मंदिर के घडियालों को ,
धर दो शंख को पूजा की थाली में -
चितेरा निमग्न है
चित्र , रंग , आकार के सृजन पर
आँख में स्वप्न आँज
मुदित है जगती के आनन् पर.
जया-अपर्णा
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