Sunday, May 9, 2010

सरिता






टेनिसन की ये कविता मेरे मन की नदी बन गयी जब गंगा की धाराएँ , उसका प्रवाह पहली बार अपने होश में देखा . कवि की द ब्रुक मेरे मन की गंगा है , जिसे मैंने अपने तरीके से प्रवाहित किया है. अंग्रेजी की कविता का कुछ अंश टाईप होने से छूट गया है ,उसके लिए माफ़ी चाहूँगी.

कूजित चिड़ियों के गीतों से
लेती हूँ मीठी -सी तान ,
हरित घास को छूकर बहती
मैं सरिता कलकल अनजान .
कभी शैल-कन्दरा में बह
कभी घाटियों से अविराम ,
फिसल गाँव के कोने छूती ,
मैं सरिता कलकल अनजान.
गोल पत्थरों से बतिया कर
हलका मन कर देती हूँ .
दुःख हरकर शीतल पावन कर
उनको शिव कर देती हूँ.
तुम आते हो, तुम जाते हो
मैं बहती ही रहती हूँ .
मेरी बातें , मेरा बहना
नहीं कभी मुझको विश्राम ,
भक्ति-सुधा सी प्रतिपल बहती
मिलने आतुर सागर-धाम.
छोटे-छोटे कितने टापू
राहों में मेरी बिखरे हैं ,
मेरी लहरों से भीग-भीग
उनके सुंदर तट निखरे हैं.
मैं चली हवा के साथ झूम
झागों के फेन बनाती हूँ ,
मैं शंख फूंक कर मंदिर में
देवों को रोज़ जगाती हूँ .
बनमाली बनकर बिरवों की
कान्त-छाँट मैं करती हूँ .
फूलों की आग जलाकर मैं
हवन-कुंड-सी जलती हूँ.
मेरे जग का विस्तृत आँगन
कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं .
तुम बंधे हुए संसारी हो
मेरे जीवन की डोर नहीं .
गल जाती सागर में जाकर
प्रतिपल तुमसे ये कहती हूँ
तुम आते हो तुम जाते हो
पर मैं बहती रहती हूँ.

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