किसी गाँव की पगडण्डी जो
जाती खेतों तक अनजान ,
उन श्यामल खेतों में प्रकटी
सुरबाला थी गाती गान.
सोने जैसे बालों को
वह झुकी हुई थी काट रही ,
अपने श्रम-सीकर ढुलकाती
हीरे-मुक्तक सब बाँट रही.
कभी हवा का एक झकोरा ,
अधरों को छू जाता था ,
गीतों का अस्फुट मधु-सावन
फिर लौट हवा में आता था.
लगता था ऐसा बाँट रही
फूलों को मिश्री-मकरंद,
या खोल रही थी सकुचाये
कलियों के पाटल पाश बंध.
उसके गीतों में कम्पित
दर्द छलक ढुल जाता था ,
नीरवता को तोड़ गीत
घाटी में तिर जाता था .
कौन पास से निकल गया
उसको नहीं तनिक आभास ,
वह झुकी हुई थी काट रही
गीतों की फसलें आयास .
नन्ही श्यामा के कंठों -से
अधिक मुखर हैं उसके गान ,
बहने दो जीवन की धारा
कहते चलने को अविराम .
मानव की पीड़ा छंदों में
शब्द निबद्ध हो जाती है ,
गंगा -सी छलक-छलक बहकर
सूने पुलिन सजाती है.
जब दर्द पराया अपना हो
जाना-पहचाना लगता है ,
तब ममता का मीठा झरना
पत्थर से होकर झरता है.
अपर्णा
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