Tuesday, May 25, 2010

कुहकनी

सुहासिनी , नवागन्तुका -
वही मधुर आवाज़
अनवरत आह्लाद !
क्या कहूँ तुम्हे कुहकनी ?
उड़ान की साधिका !
परिचारिका बाल-मन की !
कोकिल- कुहुक , खगी!
या बंजारन आवाज़ -
दिशाओं का पग फेरा ले
लौट आती ,
अथ से इति के बीच की दूरी तय कर ;
जो चिरंतन गीत गाती !

किसी दूब के टुकड़े पर
आयास धूप सेकते-
अचानक दोहरे कंठ में -
पहाड़ियों के आरोह -अवरोह में
उतरती-तिरती
कहीं दूर से निकट आती
वही स्वर -लहरी .
उतरी शनै : शनै :
बाल मन में गहरी !

जिसके तुतलेपन में छिपी
स्निग्ध , गहन कथाएँ -
मेरे पलों के साथ
लिखती- छपती -
मन का मधुमास हुईं .
लौटकर दस्तक देती
नवागन्तुका , अतिथि -प्रिया
आगमन की आस हुई !

तुम
तुम अमूर्त आवाज़ हो - कुहकनी !
जो एक कंप के साथ बह जाती है -
तंत्री पर तंत्री छेड़ -
टहनियों
शाखों
पत्रों
गुल्मों
हवा
शून्य सन्नाटे के पट पर
मृदंग थाप दे
रहस्यमयी अनुगूँज रह जाती है !
मैं उसी अनुगूँज को -
बंजारन आवाज़ को
ढूंढ़ रही हूँ -
एक बार फिर - कुहकनी , सुहासिनी !
जो आशा की टेर है
दूर अँधेरे में छिपी
उजली सवेर है!

एक बार फिर
उसी दूब के टुकड़े पर
धूप सेकते आयास
पढ़ लेना चाहती हूँ
उलटे पन्नों को !
जिनकी तहों से
फुदक आती है
वही कुहुक !
लौट आती है पदचाप
बनकर बचपन की टुहुक!
और
और पा लेती हूँ मैं
निस्पृह प्रकृति में -
अपनों की भीड़ से विलग
खोया अबोध मन
जीवन का स्वर्णिम क्षण !
वही बचपन की परी-कथा
वही परीलोक
इस धरती पर नापते
अचानक मिल जाता है
जीवन की सांध्य में
किसलय प्रभात -
वही निर्मल राग
जिसमे लिपटा था
शिशु -गात !

अपर्णा

2 comments:

  1. मुग्ध हूँ,
    चकित ऒर विस्मित भी !
    फेसबुक पर नज़र गई थी, किन्तु भूल से मिस हो गया ।
    आश्चर्य यह है कि इतनी सुंदर रचना पर कोई
    प्रतिक्रिया किसी ने अब तक नहीं लिखी !
    हाँ, फेसबुक पर बहुत से लोगों ने ज़रूर लिखी होंगी ।
    देखूँगा फुरसत में !

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  2. Thanks ! Vinay ji for appreciating my work. Such comments give me strength and support.

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