Sunday, May 9, 2010

क्या से क्या हुआ मानव




एक दिन अपने में चुपचाप
सुन रही वासंती पदचाप ,
अचानक मन का ये उल्लास
छू गया किस दुःख को अनजान.
प्रकृति के सीधे उच्छावास ,
छू गए मेरे सब विश्वास.
उसी अंतर में जाने कौन
जुड़ा उसका और मेरा मान.
हरे गलीचों में बुनता
फूल के कोमल -कोमल गात .
वह जाने कौन छिपा बैठा,
पवन की किससे होती बात ?
पंछियों की मीठी -सी तान
छू रही अम्बर के वितान .
लौट कर आती मेरे पास,
सोचती नापूँ किसके साथ ?
तौलना इतना न आसान,
बहुत छोटे हैं मेरे हाथ !
हम पावनता से दूर ,
सिमट कर बैठे दूर किनार .
न जाने क्यों ढोते हैं हम
आज मानव होने का भार .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या था क्या हुआ मानव ?
सुन नहीं सकता कानों से
प्रकृति का सुंदरतम रव.
उलझ कर खोया है मानव
रह गया अपने में नीरव .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या से क्या हुआ मानव.
अपर्णा

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