Sunday, May 9, 2010

मेरी डायरी से




मेरी डायरी से -
बाहर टिकटघर की छोटी-सी खिड़की
खिड़की से झांकती
दो बूढ़ी आँखें !
छोटी-सी कतार
स्वदेशी-विदेशी सैलानियों की .
मैं भी टिकट खरीदती हूँ .

जनाब , ये कभी हवेली थी !
आज हैरिटेज है !
हमारी संस्कृति का बाहर बड़ा वेटेज है !

हवेली का विशाल द्वार !
समृद्ध भारत की परी-कथा -सा
समूची भव्यता के साथ
गौरव से खड़ा है !
मेरी संस्कृति
तेरा इतिहास
सोन-चिरैया होने का साक्ष्य देता -
खंडित-रक्षित मूर्तियों में
दीवारों की नक्काशी ,
पपड़ाये , झूलते प्लास्टर !
अदब से फैले बेल-बूटे!
बंद झरोखों में लगे
तिकोने,गोल,रंगीन शीशे !
और उनसे आती सूरज की किरणों से जूझता
हवेली में पड़ा है!

मैं पलभर के लिए इसका हिस्सा बन गयी हूँ !
कक्ष पर कक्ष !
तिलस्म पर तिलस्म !
कितने सारे क्लिक ..
सब कैद कर कैमरे में
एक विज़न को
कैनवास दे रही हूँ !!

ये कक्ष हवेली की विधवाओं का है -
एकदम परली तरफ ,
संसार से अलहदा !
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी उसकी रूह
मेरे चारों ओर चक्कर काटती है .
दबी सिसकी!
दबी कराह कहीं !
गुमनाम खोह से आती है ...
मैं भ्रम समझ बढ़ती हूँ!!
तभी मेरा आँचल कहीं अटक जाता है!
एक तस्वीर -
मुंडा सिर!
सूनी आँखें !
सदियों से नम !!

आँचल धीरे से खींच
तस्वीर पीछे छोड़
मुंडी आत्मा ले आगे बढ़ जाती हूँ !

मेरे पास समय कहाँ
कि नारी होने की समीक्षा करूँ ?
विक्षोभ से ओंठ काटूँ?
आँखों को भीग जाने दूँ?
मैं सैलानी हूँ !
अतीत को सराहने आई हूँ ,
घाव सहलाने नहीं !

तभी एक चमगादड़ सिर से गुज़र जाता है
गुज़रे ज़माने की तरह !
सब वहीँ छोड़
बाहर आती हूँ -
आह !
वाह!
हवेली के बाहर -
संकरी गली !
मटमैले बिन बुहारे घर !
चिम्बुक की तरह चिपकती कई आँखें !
ऊंट-गाड़ियों की झुन-झुन !
लटकते-झूलते तार !
इन पर झूलती गौरैया !
कहीं जंगले पर रोटी टूंगती गैया !
ठेलों पर लदा सामान !
रेलम-पेल !
ठेलम-ठेल!
और मेरा भारत महान !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अपर्णा

1 comment:

  1. इस महान देश की धरोहर का सटीक आख्यान आप जैसी ज्ञानी कवियित्री ( भारतवर्ष की सुपुत्री ) ही कर सकती है अपर्णा जी

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