Sunday, May 9, 2010

दो राहें




दो राहें थीं -अलग दिशाएं !
अलग ठाठ दोनों के थे .
दो राहें थीं- लक्ष्य अलग थे !
अलग रहस्य दोनों के थे.
किसको पकडूँ ? किस को छोडूँ ?
अंतर में प्रश्न उठे सारे .
किस अम्बर में सूरज होगा ?
किस नभ में होंगे तारे ?
दो राहें थीं- अलग पकड़ थी .
एक सरल थी एक विरल .
एक बड़ी जानी-पहचानी
चिह्नित खड़ी हुई अविचल.
एक उपेक्षित , अनचिह्नित थी
अलक्षित-सी लगती थी .
वीराने में सुप्त कोई
खंडहर -सी खाली दिखती थी .
एक ज़माने का प्रयोजन .
सदियों का सिंचित आयोजन .
और उधर जो बिना लीक के
पसरी जंगल योजन-योजन .
मैं सोच रही उलझी-उलझी
किस पथ अब चलना होगा ?
लौट सकूँ जिस पथ से वापिस
पकड़ना भर उसको होगा!
फिर आप कदम उठ चले राह पर
जो सबसे अनजाना था .
आज जान इसको भी देखूं
ठिठका जहाँ ज़माना था.
शंकाएँ थीं , डर भी थे.
बचपन से पाले पहरे थे .
पर तोड़ लीक को चलने के
स्वप्न तीव्र और गहरे थे.
बस सपना लेकर बहा गया
जिस पर पवन नहीं दौड़ी.
मुझे देख रुख हवा ने मोड़ा
पीछे वह मेरे होली.
अपर्णा

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