Sunday, May 9, 2010

है तो ! है तो आदम ही !




है तो ! है तो आदम ही !
वही हांड-मांस -मज्जा
वही भूख , वही प्यास
धौंकनी -सी चलती सांस ...
सर्प-सा द्रुत गति से रेंगता
गिजगिज ,लिजलिजा
शहर की गलियों में
कब आता-खो जाता है
न मालूम-
इस नगर ने उसे आत्मसात कर लिया है -
मैंने भी ! तुमने भी ! इसने भी ! उसने भी !
है तो ! है तो आदम ही!
पसली-भर का पंजर -
पीली दन्त-पंक्ति
कुष्ठ से गले हाथ -
पसार कर यहीं भूख का कटोरा
भारत तुझ अन्नपूर्णा से
गटकने भर
निवाला मांगता है ...
है तो ! है तो आदम ही !
अपनी केंचुली में लिपटा अदद आदम ही!

आसमान के इन्द्रधनुष ने उसे मुग्ध नहीं किया
पर मेरे , तुम्हारे , उसके , इनके
हर चेहरे का रंग उसकी आँखों में
उम्मीद-सा गहराया है.
इन रंगों से उसका नाता
उतना पुराना है
जब माँ को प्रसव -पीड़ा से मुक्तकर
मटमैली आँखों से
धूमिल संसार को उसने अपनाया था !
और लोग कहते हैं
अपनी माँ को खाया था .

वह काला रंग छी -थू का
भूरा तुम्हारी उदासीनता का
हरा तुम्हारी समग्रता का
जिसमे दो आंसू अभी शेष हैं
यही उसके लिए विशेष है !!
है तो! है तो आदम ही!

उसे पता है -
यहीं किसी दरख़्त के साए में
कै करके दम तोड़ देगा .
पर डरता नहीं -
पूरा धूप बन गया है -
जली धूप
स्याह धूप
विद्रूप , कुरूप
जिजीविषा से सिक्त धूप!
मौत किसी खोह में दुबकी है .
हर बार टल जाती है -
कभी सिर पर काला कौआ बैठ
आती को टाल देता है -
कभी अपनी मौत के ख़त बाँट
ओझल हो जाता है -
और फिर सन्नाटे में चीख -सा
प्रकट होकर कहता है -
नेपथ्य से
है तो ! है तो आदम ही !
तुम जानते हो ?
मैं जानती हूँ?
वह जानते हैं?
यहीं तुम्हारी गली
नुक्कड़
मोड़ पर ही तो रहता है !!!!!!!!
अपर्णा

No comments:

Post a Comment