Sunday, May 9, 2010

जब डर होंगे रुक जाने के




जब डर होंगे रुक जाने के
रुक जायेंगे मेरे अक्षर ,
मेरे भीतर के स्रोत -प्रवाह
बह जायेंगे खाली होकर .
तब कहीं शून्य में उपजेगा
रव जीवन का कौतूहल भर.
जब देखूँगी इन तारों को
रातों की स्याही में खोते
और दूर कहीं पर मेघों की
गागर को रीता होते ,
तब एक बार फिर जी लूँगी
पतझड़ को बाँहों में भर.
जब डर होंगे सब खोने के
रह जाएँगी छायाएँ भर .
छूटेंगे अम्बार सभी ,
पीछे होंगे सब आडम्बर .
तब एक किनारे बैठ कहीं
देखूँगी जीवन -दर्पण .
सिकता पर लहरें आएँगी
गीला होगा पावन आँचल ,
तब शून्य ,रिक्त ,खाली तट पर
कौमुदी सहस्त्र जिलाउंगी .

अपर्णा

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