
एक हिन्दुस्तानी के लिए डेफोडिल क्या हो सकते हैं , इस नज़रिए से मैं कविता पुन: लिख रही हूँ.
एक अकेली बदली बनकर ,
हिम के आँगन पार उतरकर
सागर की लहरों पर चलकर
सरिता की धारा संग बहकर
वन-उपवन की टेर लगाकर
नीलाभ गगन में घूम रही थी
चाँद-सितारे ढूंढ़ रही थी .
तभी अचानक दृष्टि -पथ में
कितने सूरज साथ खिले थे
किरणों की पाँखुरियाँ बनकर
बाँहें फैलाये राह मिले थे
उनकी आँखों के दीपक में
लौ के सौ अम्बार लगे थे .
गेंदे के उपहार मनोहर
पतझड़ की सूनी देहर पर
मंदिर की खाली चौखट पर ,
द्वार-द्वार पर
घर-आँगन पर
वनखंडी पर
वन-उपवन पर
एक अमावट रात बुझाने
दीपक बनकर जले हुए थे.
अपर्णा
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