
आज की कविता नेपाल में हुए जन आन्दोलन को समर्पित है. लिखने की प्रेरणा शमशाद जी ने दी है .
मैं उनकी आभारी हूँ.
कब तक ?
कब तक
सिहरता
ठिठुरता रहेगा हिमालय -
अपने ही जिस्म की ठंडक से
नसों को क्षरति हिम-नदी से ??
गलेगा
पिघलेगा
बहेगा
कब तक
दीनता के दंश से ?
अब उसकी रूह में
सूरज सुगबुगाया है -
भीतर का अँधेरा
अगणित वीचियों से
सोमिल-रथी
प्रगल्भ किरणों से
जगमगाया है .
लग गयी है आग
वनखंडी, वन-प्रांतर में
जंगल के ज्वलंत कलेजे में ,
कैसे करोगे कैद ?
कब तक ?
निकलते
धधकते सूरज को
अपने सीने में ??
कब तक
अपने बुर्ज़-गुम्बदों में कब तक ?
कब तक कैद करोगे
प्रचंड सूरज को ?
भूलो मत !
बैस्टाइल तोड़कर
कभी जो लावा बहा था -
उसका कंप
दहन
बहाव
अलाव
धूं-धूं दहक रहा है
आज भी घर की अंगीठी में !!!!!
भूख की जलन से
जब नसों के बाहर होगा -
तो !!!!!!!!!
आकाश-भर लपट
नौसादर
पत्थर
रेत-पानी का उछाल होगा!
तुम्हारी रेत की नीवें
ढरक जायेंगी
बिखर जायेंगी
बिफर जायेंगी
पैर -तले सरक जायेंगी -
जब हर भूखा - बोल्शेविक
खानाबदोश सूरज
क्षितिज के पार होगा !
कब तक ?
कब तक अपनी रात के मसौदों में
कैद करोगे
जलते सूरज को ?
छीलोगे
कुरेदोगे
खोदोगे
तक़दीर की लकीरों को ?
अरे पलट जायेंगी
बनेगी आप !
जब किरण की छैनी
तराशेगी संविधान अपना
पूरा होगा आकाश का विस्तृत सपना !
सूरज स्वतंत्र है !
रात से !
जुड़ा है गगन के प्यार से !
तुम्हारे हिस्से आये महल -प्रासाद ये ,
हमें मिला खुला आकाश ये !
तुम्हे बंद कमरे !
हमें सूरज का अहसास !
तुम भर-पेट
हमें अनबुझ प्यास !
खोद देंगे सूरज का सीना भी
बहेगी उससे जीवन की नदी !
लग जाए चाहें शत-शत सदी !
अपर्णा
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