
अरी गाँव की पुरवाई पता ढूंढ़ तू
भटकती
हुलरती
पहुँच गयी
थपथपाने !
तपते
जेठ के घावों को
पीड़ा के अलावों को !
ओ ! ओ! ओ !री ! ओ!
न लरज
ठमक
न हहला कर लौट ले
रुक ले दो घड़ी
थम ले पहर भर !
देख इस निराकुल को
बेखटक
बेखबर
पसरती जिन्दगी को !
उसकी बंदगी को !
हैरान क्यों है ?
क्या विस्थापित
गाँव की मिट्टी से ?
फूली सरसों से ?
गमकते टेसू से ?
बैलों की रुनझुन से ?
खलिहान , छप्पर से
कुट्टी-सानी से ?
पोखर -पानी से ?
लगता है तेरे भी पैर उखड गए !
या खींच लायी स्मृति की खरोंच
कोई टोंच
तुझे बेगानों के देश
गोदने
खचने
सँवरने
देश -विदेस !
पुरवाई !
ओ ! ओ री! ओ! ओ! री !
पर है तू कोविद !
इन अंगारों पर जलकर
थाप देती है
भूली ढोलक-सी !
मंजीरे-सी बजती है
अलगोजा
पखवाज
कहरवा
ओ री सारे साज
सुभीते
गाँव के राग !
बुझी आँखों की आग!
पुरवाई !
न महक
न लहक
तोड़ ले संग हमारे
संगता के पत्थर !
बुझा प्यास अपनी
अपने ही श्रम-सीकर से
हो तर ! तर-बतर!
आज तू भी सो ले भूखी
ठन्डे चूल्हे की राख को
पेट पर मल!
पुरवाई !
ओ! ओ ! री! ओ! ओ! री!
पकड़ कर ले जा हमारे हाथ !
न हो निसंग , चल साथ !
नरम स्पर्श से पोंछ आंसू
की छलक कर छील न दें
रिसते घाव !
किस छाँव में
छूटा गुदगुदाया गाँव !
वह ठांव !
ले हम हो चले विस्थापित
ओ! री! ओ! ओ! री! ओ!
लौटकर बता दे
अमवा - आम को !
हमें पछुआ की आदत हो गयी है !
फाके की हवाएं
सूखी घटाएं !
तू भी विस्थापित है !!
है यदि!
तो बंजारन रुक जा
साथ चलेंगे
साथ जियेंगे
साथ मरेंगे
बिना मिट्टी के विदेश में !
ओ! री! ओ! ओ! री! ओ!
हम हैं दरवेश
इस विदेश के !
अपर्णा
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