सुहासिनी , नवागन्तुका -
वही मधुर आवाज़
अनवरत आह्लाद !
क्या कहूँ तुम्हे कुहकनी ?
उड़ान की साधिका !
परिचारिका बाल-मन की !
कोकिल- कुहुक , खगी!
या बंजारन आवाज़ -
दिशाओं का पग फेरा ले
लौट आती ,
अथ से इति के बीच की दूरी तय कर ;
जो चिरंतन गीत गाती !
किसी दूब के टुकड़े पर
आयास धूप सेकते-
अचानक दोहरे कंठ में -
पहाड़ियों के आरोह -अवरोह में
उतरती-तिरती
कहीं दूर से निकट आती
वही स्वर -लहरी .
उतरी शनै : शनै :
बाल मन में गहरी !
जिसके तुतलेपन में छिपी
स्निग्ध , गहन कथाएँ -
मेरे पलों के साथ
लिखती- छपती -
मन का मधुमास हुईं .
लौटकर दस्तक देती
नवागन्तुका , अतिथि -प्रिया
आगमन की आस हुई !
तुम
तुम अमूर्त आवाज़ हो - कुहकनी !
जो एक कंप के साथ बह जाती है -
तंत्री पर तंत्री छेड़ -
टहनियों
शाखों
पत्रों
गुल्मों
हवा
शून्य सन्नाटे के पट पर
मृदंग थाप दे
रहस्यमयी अनुगूँज रह जाती है !
मैं उसी अनुगूँज को -
बंजारन आवाज़ को
ढूंढ़ रही हूँ -
एक बार फिर - कुहकनी , सुहासिनी !
जो आशा की टेर है
दूर अँधेरे में छिपी
उजली सवेर है!
एक बार फिर
उसी दूब के टुकड़े पर
धूप सेकते आयास
पढ़ लेना चाहती हूँ
उलटे पन्नों को !
जिनकी तहों से
फुदक आती है
वही कुहुक !
लौट आती है पदचाप
बनकर बचपन की टुहुक!
और
और पा लेती हूँ मैं
निस्पृह प्रकृति में -
अपनों की भीड़ से विलग
खोया अबोध मन
जीवन का स्वर्णिम क्षण !
वही बचपन की परी-कथा
वही परीलोक
इस धरती पर नापते
अचानक मिल जाता है
जीवन की सांध्य में
किसलय प्रभात -
वही निर्मल राग
जिसमे लिपटा था
शिशु -गात !
अपर्णा
लिखने-पढ़ने का शौक . अधिकतर कविता लिखना ही रहता है पर कभी-कभी कहानियाँ भी लिख लेते हैं . कलाओं में नृत्य, खेलों में टेबल टेनिस में अभिरुचि ....
Tuesday, May 25, 2010
Sunday, May 9, 2010
हाँ , निराश हूँ

हाँ , निराश हूँ मैं !
सुरंगों के गर्भ में
आशाएं दफ़न है ,
निराशाएं
बारूद में लिपटी
शोलों का कफ़न हैं!
जंगल -जंगलात
आतंक से डरे
अपने सर गर्दन में डाले पड़े हैं .
हवाओं ने कस के ओंठ भींच लिए हैं
दर्द रोकने अपना -
समझा लिया है मन को -
चुप !
चुप , पड़ी रहो
पत्तों , शाखों , टहनियों , गुल्मों पर ;
इधर ताल , नदी ,पोखर
धूं-धूं जलने लगे हैं !
निराश हूँ मैं !
हाँ , निराश हूँ !
लड़ने का
निबटने का
प्रशिक्षण नहीं !
कोई बात नहीं
आदी हूँ मैं -
कंधे पर संगीन धरकर
सीने पर छर्रों को झेल लूँगा
उफ़ न करूँगा !
हाँ, पर इधर -
तुमसे बात कर रहा हूँ -
पीठ मत फेरो !
हाँ, इधर
अपनी संसद बनाम जनता से
मुखातिब हूँ -
कह तो रहा हूँ
इस बार नहीं -
इस बार नहीं डरूंगा !
पीछे नहीं हटूंगा !
तुम्हारे हौसले लेकर
घर-द्वार तुम्हे देकर
जलती सुरंगों में उतरूंगा
तुम्हारी खातिर !
पर मैं जानता हूँ
मरणोपरांत
मेरा परिवार एक प्रस्ताव होगा
जनता की आवाज़ होगा
सुर्ख काले अक्षरों का अखबार होगा !
फिर दब जाएगा
किसी फ़ाइल में
लिपटेगा लाल फीते में
बरसों चलेगा सिलसिला -
नयी नौकरी , नयी शहादत
कुछ रकम
न हुआ तो कोई तमगा !
गाँव की झोंपड़ी में
जी रही होगी
अपनी झुर्रियों से लड़ती
याद पलकों पर रखे
बेजुबान
न रखती होगी कोई गिला !
हाँ , फिर भी मैं तैयार हूँ !
सक्षम हूँ
उद्धत हूँ -
बारूद की सुरंगों पर पैर धरने के लिए !
जानता हूँ
ये बियाबान जंगल
दहलता रहेगा !
कई सुरंगों से गुज़र जायेंगे
हवाओं में मौत का सन्नाटा होगा
और इस सन्नाटे से गुजरेगा
इंसानियत का जनाज़ा
जिसके आगे चलने वाला
न कोई रहबर
न पीछे आज़दार होगा !
अपनी पेशानी से पसीना पोंछ दूँ कैसे ?
हाँ, निराश हूँ !
निराश हूँ मैं !
अपर्णा
दो राहें

दो राहें थीं -अलग दिशाएं !
अलग ठाठ दोनों के थे .
दो राहें थीं- लक्ष्य अलग थे !
अलग रहस्य दोनों के थे.
किसको पकडूँ ? किस को छोडूँ ?
अंतर में प्रश्न उठे सारे .
किस अम्बर में सूरज होगा ?
किस नभ में होंगे तारे ?
दो राहें थीं- अलग पकड़ थी .
एक सरल थी एक विरल .
एक बड़ी जानी-पहचानी
चिह्नित खड़ी हुई अविचल.
एक उपेक्षित , अनचिह्नित थी
अलक्षित-सी लगती थी .
वीराने में सुप्त कोई
खंडहर -सी खाली दिखती थी .
एक ज़माने का प्रयोजन .
सदियों का सिंचित आयोजन .
और उधर जो बिना लीक के
पसरी जंगल योजन-योजन .
मैं सोच रही उलझी-उलझी
किस पथ अब चलना होगा ?
लौट सकूँ जिस पथ से वापिस
पकड़ना भर उसको होगा!
फिर आप कदम उठ चले राह पर
जो सबसे अनजाना था .
आज जान इसको भी देखूं
ठिठका जहाँ ज़माना था.
शंकाएँ थीं , डर भी थे.
बचपन से पाले पहरे थे .
पर तोड़ लीक को चलने के
स्वप्न तीव्र और गहरे थे.
बस सपना लेकर बहा गया
जिस पर पवन नहीं दौड़ी.
मुझे देख रुख हवा ने मोड़ा
पीछे वह मेरे होली.
अपर्णा
क्या से क्या हुआ मानव

एक दिन अपने में चुपचाप
सुन रही वासंती पदचाप ,
अचानक मन का ये उल्लास
छू गया किस दुःख को अनजान.
प्रकृति के सीधे उच्छावास ,
छू गए मेरे सब विश्वास.
उसी अंतर में जाने कौन
जुड़ा उसका और मेरा मान.
हरे गलीचों में बुनता
फूल के कोमल -कोमल गात .
वह जाने कौन छिपा बैठा,
पवन की किससे होती बात ?
पंछियों की मीठी -सी तान
छू रही अम्बर के वितान .
लौट कर आती मेरे पास,
सोचती नापूँ किसके साथ ?
तौलना इतना न आसान,
बहुत छोटे हैं मेरे हाथ !
हम पावनता से दूर ,
सिमट कर बैठे दूर किनार .
न जाने क्यों ढोते हैं हम
आज मानव होने का भार .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या था क्या हुआ मानव ?
सुन नहीं सकता कानों से
प्रकृति का सुंदरतम रव.
उलझ कर खोया है मानव
रह गया अपने में नीरव .
प्रश्न मन में उठता रहता
क्या से क्या हुआ मानव.
अपर्णा
जब डर होंगे रुक जाने के

जब डर होंगे रुक जाने के
रुक जायेंगे मेरे अक्षर ,
मेरे भीतर के स्रोत -प्रवाह
बह जायेंगे खाली होकर .
तब कहीं शून्य में उपजेगा
रव जीवन का कौतूहल भर.
जब देखूँगी इन तारों को
रातों की स्याही में खोते
और दूर कहीं पर मेघों की
गागर को रीता होते ,
तब एक बार फिर जी लूँगी
पतझड़ को बाँहों में भर.
जब डर होंगे सब खोने के
रह जाएँगी छायाएँ भर .
छूटेंगे अम्बार सभी ,
पीछे होंगे सब आडम्बर .
तब एक किनारे बैठ कहीं
देखूँगी जीवन -दर्पण .
सिकता पर लहरें आएँगी
गीला होगा पावन आँचल ,
तब शून्य ,रिक्त ,खाली तट पर
कौमुदी सहस्त्र जिलाउंगी .
अपर्णा
वह अकेली
किसी गाँव की पगडण्डी जो
जाती खेतों तक अनजान ,
उन श्यामल खेतों में प्रकटी
सुरबाला थी गाती गान.
सोने जैसे बालों को
वह झुकी हुई थी काट रही ,
अपने श्रम-सीकर ढुलकाती
हीरे-मुक्तक सब बाँट रही.
कभी हवा का एक झकोरा ,
अधरों को छू जाता था ,
गीतों का अस्फुट मधु-सावन
फिर लौट हवा में आता था.
लगता था ऐसा बाँट रही
फूलों को मिश्री-मकरंद,
या खोल रही थी सकुचाये
कलियों के पाटल पाश बंध.
उसके गीतों में कम्पित
दर्द छलक ढुल जाता था ,
नीरवता को तोड़ गीत
घाटी में तिर जाता था .
कौन पास से निकल गया
उसको नहीं तनिक आभास ,
वह झुकी हुई थी काट रही
गीतों की फसलें आयास .
नन्ही श्यामा के कंठों -से
अधिक मुखर हैं उसके गान ,
बहने दो जीवन की धारा
कहते चलने को अविराम .
मानव की पीड़ा छंदों में
शब्द निबद्ध हो जाती है ,
गंगा -सी छलक-छलक बहकर
सूने पुलिन सजाती है.
जब दर्द पराया अपना हो
जाना-पहचाना लगता है ,
तब ममता का मीठा झरना
पत्थर से होकर झरता है.
अपर्णा
सरिता

टेनिसन की ये कविता मेरे मन की नदी बन गयी जब गंगा की धाराएँ , उसका प्रवाह पहली बार अपने होश में देखा . कवि की द ब्रुक मेरे मन की गंगा है , जिसे मैंने अपने तरीके से प्रवाहित किया है. अंग्रेजी की कविता का कुछ अंश टाईप होने से छूट गया है ,उसके लिए माफ़ी चाहूँगी.
कूजित चिड़ियों के गीतों से
लेती हूँ मीठी -सी तान ,
हरित घास को छूकर बहती
मैं सरिता कलकल अनजान .
कभी शैल-कन्दरा में बह
कभी घाटियों से अविराम ,
फिसल गाँव के कोने छूती ,
मैं सरिता कलकल अनजान.
गोल पत्थरों से बतिया कर
हलका मन कर देती हूँ .
दुःख हरकर शीतल पावन कर
उनको शिव कर देती हूँ.
तुम आते हो, तुम जाते हो
मैं बहती ही रहती हूँ .
मेरी बातें , मेरा बहना
नहीं कभी मुझको विश्राम ,
भक्ति-सुधा सी प्रतिपल बहती
मिलने आतुर सागर-धाम.
छोटे-छोटे कितने टापू
राहों में मेरी बिखरे हैं ,
मेरी लहरों से भीग-भीग
उनके सुंदर तट निखरे हैं.
मैं चली हवा के साथ झूम
झागों के फेन बनाती हूँ ,
मैं शंख फूंक कर मंदिर में
देवों को रोज़ जगाती हूँ .
बनमाली बनकर बिरवों की
कान्त-छाँट मैं करती हूँ .
फूलों की आग जलाकर मैं
हवन-कुंड-सी जलती हूँ.
मेरे जग का विस्तृत आँगन
कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं .
तुम बंधे हुए संसारी हो
मेरे जीवन की डोर नहीं .
गल जाती सागर में जाकर
प्रतिपल तुमसे ये कहती हूँ
तुम आते हो तुम जाते हो
पर मैं बहती रहती हूँ.
कस्तूर

To a Skylark P.B. Shelley की अमर रचना है. कविता के पक्षी से मैं माफ़ी माँग रही हूँ , क्योंकि मैंने उसका नाम बदल दिया है. भारत का गायक पक्षी कस्तूर मुझे अधिक जाना पहचाना लगा . कस्तूर का परिचय मैं पी.बी. शैली से करवाना चाहूँगी. वैसे हो सकता है हम हिन्दुस्तानी भी इस नाम से परिचित न हों.
मूल कविता का वीडियो भी देखें .
कहीं स्वर्ग से , चोंच में अपनी
मुक्तक गीतों के लाया .
घटाएँ साथ बिठा पंखों पर
कस्तूर धरा पर तिर आया.
फिर इस डाली पर आ बैठा ,
फिर उस डाली पर जा बैठा.
आह्लाद घोलता मधुवन में ,
कण -कण के मन में जा पैठा.
मैं सोच रही सुख के पंछी
तेरा क्या मुझ से नाता है !
मेरा दुःख तेरा कंठ बना ,
तेरा सुख मुझको भाता है.
अपने पंखों में दर्द लिए ,
उड़ चला दूर तू अम्बर में .
फिर बादल की तू आग बना
और बरस गया तू घर-घर में.
जब सोने की बिजली चमकी
और डूब गया सूरज उसमें ,
तब किसी नाव-सा तैर गया ,
बादल की उठती लहरों में.
मैं देख न पाई थी तुझको ,
आँखों पर रात अँधेरी थी.
पर मन की घाटी गूँज उठी,
जो तान निशा पर छेड़ी थी.
रजनी भी तुझसे हार गयी,
बादल छंटे कुहाँसों के .
चंदा के ओठों पर बरसे
हास सरल आशाओं के.
तेरे अन्दर का कवि ह्रदय
रोक नहीं खुद को पाता.
अश्रु के मोती चुग सारे,
तीव्र कंठ से तू गाता.
कैसी आशाएँ , कैसे डर?
जीवन का चलता एक सफ़र .
हर कदम नापते बढ़ जाते ,
रह जाती पीछे एक डगर.
हम आज पलट पीछे देखें ,
या अनदेखे ही बढ़ जाएँ.
पर सुंदरतम मुसकान वही,
पर-पीड़ा में जो गल पाए.
तेरे गीतों से सुंदर मग,
झिलमिल तारे , सारा अग-जग.
तू आधे भी सिखला देगा,
अपने कंठों के कोमल स्वर.
तो मैं भी कुछ गा पाऊँगी
औरों की पीड़ा को हर.
जो आज सुना-सीखा मैंने,
मेरे ओठों पर आएगा .
जो आज सुन रही मैं तुझको ,
फिर जगत उसे सुन पायेगा.
अपर्णा
गेंदे के उपहार मनोहर

एक हिन्दुस्तानी के लिए डेफोडिल क्या हो सकते हैं , इस नज़रिए से मैं कविता पुन: लिख रही हूँ.
एक अकेली बदली बनकर ,
हिम के आँगन पार उतरकर
सागर की लहरों पर चलकर
सरिता की धारा संग बहकर
वन-उपवन की टेर लगाकर
नीलाभ गगन में घूम रही थी
चाँद-सितारे ढूंढ़ रही थी .
तभी अचानक दृष्टि -पथ में
कितने सूरज साथ खिले थे
किरणों की पाँखुरियाँ बनकर
बाँहें फैलाये राह मिले थे
उनकी आँखों के दीपक में
लौ के सौ अम्बार लगे थे .
गेंदे के उपहार मनोहर
पतझड़ की सूनी देहर पर
मंदिर की खाली चौखट पर ,
द्वार-द्वार पर
घर-आँगन पर
वनखंडी पर
वन-उपवन पर
एक अमावट रात बुझाने
दीपक बनकर जले हुए थे.
अपर्णा
अहिल्या! अहिल्या ! अहिल्या!

रामलीला !
इस साल फिर!
वही राम!
ढेर पात्र!
उनमें अधरेखा -सी
सदियों खिंची !
मूक !
आवाक!
हठात!
अहिल्या! अहिल्या! अहिल्या!
प्रतीक्षारत!
व्यक्ति की!
समाज की!
पति की!
राम की!
अहिल्या! अहिल्या ! अहिल्या!
इन्द्र, एक छल!
एक रूप!
एक देव!
एक पुरुष!
शौर्य!
चौर्य!
रमण!
हनन!
विद्रूप कुटी के आँगन में -
विस्तरित चीत्कार , हाहाकार ...!
अहिल्या! अहिल्या! अहिल्या!
वह गया !
वह रही!
पति, समाज , संसार के समक्ष -
लज्जा , अपमान से भीत !
क्रीत!
फैले नेत्र!
उलझे बाल!
कहीं से टिटहरी चीख उठी -
आह ! परित्यक्त !
अहिल्या! अहिल्या! अहिल्या!
टिटहरी की चीख -
लता ! कुञ्ज! वन ! उपवन!
हवा! गंध! धरा! आकाश!
घर! द्वार!
रिस-रिस , रिस- रिस
पसर गयी चहुँ ओर!
उतर गया रिसाव !
गहरे!
व्रणों की रेत भरी कोख में !
पत्थर बनकर
खड़ी !
चुप-चुप ,चुप-चुप
कब से
अहिल्या!अहिल्या! अहिल्या!
और रामलीला चलती रही !
अपर्णा
द्रुम डालों के बीच

द्रुम डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन तृणों को चुन-चुन कर है नीड़ बनाता !
लीरी, पंख,
चूड़ी ,धागों से उसे सजाता !
द्रुम डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन नीड़ में बैठ
प्रेम के शंख बजाता !
संमर्मर -से अण्डों के शिवलिंग सजाता !
द्रुम डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन फैलाये पंख , राख -सा तपता रहता !
इसी राख में जीवन का सोना है ढलता !
द्रुम-डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन साँझ को
दानों के मोती चुग लाता !
और चोंच से चोंच मिलकर उन्हें खिलाता !
द्रुम डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन पंख को
पालों -सा मजबूत बनाता !
और पवन में नौका -सा तिरना सिखलाता !
द्रुम डालों के बीच
पर्ण की मृदु छाया में ,
कौन देखता मूक , शून्य बूढ़ी आँखों से !
मन -छौना लौटेगा!! पूछे बूढ़े पाँखों से !
(बूढ़े माँ -पिता के लिए - एक व्याकुल मन )
अपर्णा
कौतूहल : एक स्रोत

कौतूहल : एक स्रोत
प्रश्न : एक बहाव
खोज : एक निकास
विवेक
भाव
उत्तर
निदान
बस एक उछाल !!
किसी लहर का द्वीप की ओर
पकड़ने अज्ञात छोर .
अपने मुहाने खुद बनाती है धार -
रेत को उठाकर
बैठाकर
बहाकर
टकराकर
बिखराकर !
एक हिलोर पर हिलोर
क्षण-क्षण की डोर -
हवा को नदी की चादर पर समतल करती ,
अपने आवेग के साथ ले जाती -
बस एक सतत प्रवाह
अविराम ! अविराम ! अविराम !
शिलाओं पर सिर धरकर
पूजती
अर्घ्य देती
समय को चिह्नित करती
निकल जाती है
प्रगल्भा !
पीछे रह जाता है
पनार का बाँकपन
दहाना
उत्स
और
एक कौतूहल
प्रश्न
खोज
विवेक , भाव , उत्तर , निदान
और
समय का फेंका उछाल!!
अपर्णा
मुहाने खुद बनाती है धार

आज मैं अलग से कोई कविता नहीं लिख रही हूँ . ये कविता कल की कविता से संवाद के रूप में निकलती गयी और जिस रूप में आई उसे मैं यहाँ लिख रही हूँ -
ये मेरी कविता का अंश है जिसने आगे जाकर क्या मोड़ लिया-
अपने मुहाने खुद बनाती है धार -
रेत को उठाकर
बैठाकर
बहाकर
टकराकर
बिखराकर !
एक हिलोर पर हिलोर
क्षण-क्षण की डोर -
हवा को नदी की चादर पर समतल करती ,
अपने आवेग के साथ ले जाती -
बस एक सतत प्रवाह
अविराम ! ...अविराम ! अविराम !
शिलाओं पर सिर धरकर
पूजती
अर्घ्य देती
समय को चिह्नित करती
निकल जाती है
प्रगल्भा !
पीछे रह जाता है
पनार का बाँकपन
दहाना
उत्स
और
एक कौतूहल
प्रश्न
खोज
विवेक , भाव , उत्तर , निदान
और
समय का फेंका उछाल!!
और पीछे रह जाता है
साथ लगे पर्वत का
कठिन अडिग स्वत्व
जो प्रवाह के विरोधाभासों से
जिस्म छुआकर ...
(क्षण-भर को ही सही)
फिर अविचल खड़ा हो जाता है
संसृति के आदिम उद्देश्य की तरह....
खड़ा रहता है ,अपनी इयत्ता का प्रमाण दे
उस पर झुके आसमान को !!
अप्रभावित !
बहा देता है अपनी गोद के सब प्रपात
सागर से मिलने को ....
शिला खण्डों को होने देता है चूर
ताकि इस रज पर
हो विनिर्मित सुमन-सौरभ का मृदुल हास
और चितेरा संसृति का
सौंप सके -
हमें आदिम उद्देश्य
जो कहीं खो सा गया है
निविड़ में सो -सा गया है!!!!!!!!!!!!!!!!
बांह पसारे
शायद कहता हो
प्रकृति से...
यह लो...
मेरे अंतर की हिलोर...
मेरा बाकी बचा स्वत्व
मेरी आत्मा
यह लो मेरा सबकुछ...
अर्घ्य दिया तुम्हे
यह लो
मेरी आराध्या
यह लो....
आराध्या वरण कर प्रसाद को
बाँट देती है -
सूने पुलिनो पर ,
सैकत पर ,
मैदानों के विस्तीर्ण फैलाव पर ,...
खेतों के आयास
रूखे चेहरों पर ,
शुष्क वन्ध्या धरती पर,
जन-जन के तृषित जीवन पर.
लो सम्पूर्ण हुई पूजा !
अब सोने दो पलभर मंदिर के घडियालों को ,
धर दो शंख को पूजा की थाली में -
चितेरा निमग्न है
चित्र , रंग , आकार के सृजन पर
आँख में स्वप्न आँज
मुदित है जगती के आनन् पर.
जया-अपर्णा
सूरज स्वतंत्र है

आज की कविता नेपाल में हुए जन आन्दोलन को समर्पित है. लिखने की प्रेरणा शमशाद जी ने दी है .
मैं उनकी आभारी हूँ.
कब तक ?
कब तक
सिहरता
ठिठुरता रहेगा हिमालय -
अपने ही जिस्म की ठंडक से
नसों को क्षरति हिम-नदी से ??
गलेगा
पिघलेगा
बहेगा
कब तक
दीनता के दंश से ?
अब उसकी रूह में
सूरज सुगबुगाया है -
भीतर का अँधेरा
अगणित वीचियों से
सोमिल-रथी
प्रगल्भ किरणों से
जगमगाया है .
लग गयी है आग
वनखंडी, वन-प्रांतर में
जंगल के ज्वलंत कलेजे में ,
कैसे करोगे कैद ?
कब तक ?
निकलते
धधकते सूरज को
अपने सीने में ??
कब तक
अपने बुर्ज़-गुम्बदों में कब तक ?
कब तक कैद करोगे
प्रचंड सूरज को ?
भूलो मत !
बैस्टाइल तोड़कर
कभी जो लावा बहा था -
उसका कंप
दहन
बहाव
अलाव
धूं-धूं दहक रहा है
आज भी घर की अंगीठी में !!!!!
भूख की जलन से
जब नसों के बाहर होगा -
तो !!!!!!!!!
आकाश-भर लपट
नौसादर
पत्थर
रेत-पानी का उछाल होगा!
तुम्हारी रेत की नीवें
ढरक जायेंगी
बिखर जायेंगी
बिफर जायेंगी
पैर -तले सरक जायेंगी -
जब हर भूखा - बोल्शेविक
खानाबदोश सूरज
क्षितिज के पार होगा !
कब तक ?
कब तक अपनी रात के मसौदों में
कैद करोगे
जलते सूरज को ?
छीलोगे
कुरेदोगे
खोदोगे
तक़दीर की लकीरों को ?
अरे पलट जायेंगी
बनेगी आप !
जब किरण की छैनी
तराशेगी संविधान अपना
पूरा होगा आकाश का विस्तृत सपना !
सूरज स्वतंत्र है !
रात से !
जुड़ा है गगन के प्यार से !
तुम्हारे हिस्से आये महल -प्रासाद ये ,
हमें मिला खुला आकाश ये !
तुम्हे बंद कमरे !
हमें सूरज का अहसास !
तुम भर-पेट
हमें अनबुझ प्यास !
खोद देंगे सूरज का सीना भी
बहेगी उससे जीवन की नदी !
लग जाए चाहें शत-शत सदी !
अपर्णा
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता !

यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता ! यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता !
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता ! यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता
आर्यवर्त! नमन !
देवपुत्रों के देश
नमन !
सर्वत्र देव वास !
देवों के महिमा-मंडित मुख -
अजस्र सुख !
देव प्रकाश से चकाचौंध नेत्र
प्रकाशित जन-जन , समाज !
अमर नारी -देश के
अमर देव
तू प्रबुद्ध
सबल
विशेष
रत नारी पूजा में आज !
तू कर रमण देव !
अपनी ही रोशनी से अंध
त्री-नेत्र बंद !
तूने कब देखा -
कब सुना
कब जाना
नारी का मन !
ओ तपस्वी !
तेरा डमरू
घनघन-घनघन नाद!
किसने सुना
अरण्य में
ग्राम में
नगर
कस्बे में वह रुदन , आर्तनाद ?
बस तेरा डमरू बजता रहा
चीर कर करुण - विलाप !
दयाना, अमला , गूरी, चंदो
और न जाने कितने नाम
डायन बनकर भटक रहे हैं सदियों से
कटे केश , क्षत वक्ष ,
निर्वसन
हर तंत्री से
आती चीत्कार
हाहाकार !
पर तू निर्विकार
देख रहा देवों के अपकार !
सारे पत्थर उसे लगे !
उसे घसीटा
ताड़ित- प्रताड़ित किया
निष्कासित किया
अपमानित किया
पर एक भी पत्थर तेरे डमरू पर न लगा ?
नहीं तो ऐसा भी नहीं
कि तेरा ओंकार चैतन्य न होता
इस नाद पर नर्तन न किया होता !
आँख खुलती तो
जला देता तू
ये अरण्य
ग्राम
क़स्बा
नगर
और
देता
जो देय है
देय नारी को !
उसका सम्मान
उसका मान
नया विहान !
फिर डमरू बजता
साज सजता
अग्नि समिधा में घृत गिरता
ओंकार से नभ का होता क्षरण
धरती पर देव-रमण !
और हम सब सुनते
सब कहते
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता
यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता !
अपर्णा
है तो ! है तो आदम ही !

है तो ! है तो आदम ही !
वही हांड-मांस -मज्जा
वही भूख , वही प्यास
धौंकनी -सी चलती सांस ...
सर्प-सा द्रुत गति से रेंगता
गिजगिज ,लिजलिजा
शहर की गलियों में
कब आता-खो जाता है
न मालूम-
इस नगर ने उसे आत्मसात कर लिया है -
मैंने भी ! तुमने भी ! इसने भी ! उसने भी !
है तो ! है तो आदम ही!
पसली-भर का पंजर -
पीली दन्त-पंक्ति
कुष्ठ से गले हाथ -
पसार कर यहीं भूख का कटोरा
भारत तुझ अन्नपूर्णा से
गटकने भर
निवाला मांगता है ...
है तो ! है तो आदम ही !
अपनी केंचुली में लिपटा अदद आदम ही!
आसमान के इन्द्रधनुष ने उसे मुग्ध नहीं किया
पर मेरे , तुम्हारे , उसके , इनके
हर चेहरे का रंग उसकी आँखों में
उम्मीद-सा गहराया है.
इन रंगों से उसका नाता
उतना पुराना है
जब माँ को प्रसव -पीड़ा से मुक्तकर
मटमैली आँखों से
धूमिल संसार को उसने अपनाया था !
और लोग कहते हैं
अपनी माँ को खाया था .
वह काला रंग छी -थू का
भूरा तुम्हारी उदासीनता का
हरा तुम्हारी समग्रता का
जिसमे दो आंसू अभी शेष हैं
यही उसके लिए विशेष है !!
है तो! है तो आदम ही!
उसे पता है -
यहीं किसी दरख़्त के साए में
कै करके दम तोड़ देगा .
पर डरता नहीं -
पूरा धूप बन गया है -
जली धूप
स्याह धूप
विद्रूप , कुरूप
जिजीविषा से सिक्त धूप!
मौत किसी खोह में दुबकी है .
हर बार टल जाती है -
कभी सिर पर काला कौआ बैठ
आती को टाल देता है -
कभी अपनी मौत के ख़त बाँट
ओझल हो जाता है -
और फिर सन्नाटे में चीख -सा
प्रकट होकर कहता है -
नेपथ्य से
है तो ! है तो आदम ही !
तुम जानते हो ?
मैं जानती हूँ?
वह जानते हैं?
यहीं तुम्हारी गली
नुक्कड़
मोड़ पर ही तो रहता है !!!!!!!!
अपर्णा
गाँव की पुरवाई

अरी गाँव की पुरवाई पता ढूंढ़ तू
भटकती
हुलरती
पहुँच गयी
थपथपाने !
तपते
जेठ के घावों को
पीड़ा के अलावों को !
ओ ! ओ! ओ !री ! ओ!
न लरज
ठमक
न हहला कर लौट ले
रुक ले दो घड़ी
थम ले पहर भर !
देख इस निराकुल को
बेखटक
बेखबर
पसरती जिन्दगी को !
उसकी बंदगी को !
हैरान क्यों है ?
क्या विस्थापित
गाँव की मिट्टी से ?
फूली सरसों से ?
गमकते टेसू से ?
बैलों की रुनझुन से ?
खलिहान , छप्पर से
कुट्टी-सानी से ?
पोखर -पानी से ?
लगता है तेरे भी पैर उखड गए !
या खींच लायी स्मृति की खरोंच
कोई टोंच
तुझे बेगानों के देश
गोदने
खचने
सँवरने
देश -विदेस !
पुरवाई !
ओ ! ओ री! ओ! ओ! री !
पर है तू कोविद !
इन अंगारों पर जलकर
थाप देती है
भूली ढोलक-सी !
मंजीरे-सी बजती है
अलगोजा
पखवाज
कहरवा
ओ री सारे साज
सुभीते
गाँव के राग !
बुझी आँखों की आग!
पुरवाई !
न महक
न लहक
तोड़ ले संग हमारे
संगता के पत्थर !
बुझा प्यास अपनी
अपने ही श्रम-सीकर से
हो तर ! तर-बतर!
आज तू भी सो ले भूखी
ठन्डे चूल्हे की राख को
पेट पर मल!
पुरवाई !
ओ! ओ ! री! ओ! ओ! री!
पकड़ कर ले जा हमारे हाथ !
न हो निसंग , चल साथ !
नरम स्पर्श से पोंछ आंसू
की छलक कर छील न दें
रिसते घाव !
किस छाँव में
छूटा गुदगुदाया गाँव !
वह ठांव !
ले हम हो चले विस्थापित
ओ! री! ओ! ओ! री! ओ!
लौटकर बता दे
अमवा - आम को !
हमें पछुआ की आदत हो गयी है !
फाके की हवाएं
सूखी घटाएं !
तू भी विस्थापित है !!
है यदि!
तो बंजारन रुक जा
साथ चलेंगे
साथ जियेंगे
साथ मरेंगे
बिना मिट्टी के विदेश में !
ओ! री! ओ! ओ! री! ओ!
हम हैं दरवेश
इस विदेश के !
अपर्णा
दर्पण

हाथ में दर्पण लिए
युगों को देख रही हूँ -
महा आवागमन !
पुरातन! सनातन !
धर्मों के आचार -विचार !
आतताइयों के अनाचार !
ताज -तख्तों के वैभव -
गर्त में दबे हजारों मुकुट !
विजय के दर्प में झूलती सत्ताएँ !
जन-जन का प्रलाप-विलाप !
नारी के क्रंदन में झूलती वन-लताएँ !
विपदाएँ, प्रलय !
टूटते प्रासादों के रजत-कंगूरे !
राजनीति के दांव-पेच अधूरे !
इतिहास की सीलन में
उहापोह में श्वांस लेती संस्कृतियाँ
समय की कला-कृतियाँ
और हर युग की नाना विकृतियाँ !
ये दर्पण मेरे दृष्टिपथ में
कई काल खड़े कर गया -
और उन्हीं कालों के बीच
कभी स्पष्ट , कभी धुंधला
मेरे अस्तित्व का
अनमोल अक्स दे गया !
न जाने कितने नायक
महानायक ?
न जाने कितने पल-समय ?
रील बनकर इस दर्पण से गुज़र गए
और इस रील में तलाशती रही अपनी पहचान !!
क़ि मैं कहाँ हूँ इस भीड़ में ?
कौन हूँ इस भीड़ में ?
क्यों हूँ इस भीड़ में ?
हजारों प्रश्नों में तराशती
देख रही हूँ खुद को अनजान .
संसार के इस दर्पण में
जो आज मेरा बिम्ब है
वह कल का होगा .
मैं सम्पूर्ण देखूंगी
चटखते अतीत में
सुन्दर वर्तमान
बनते भविष्यों के सार्थक प्रमाण !
आते-जाते बिम्ब होंगे
मेरा दर्पण किसी और के हाथ होगा
पर जो न होने पर भी मेरे
समय को मेरा आभास होगा .
अपर्णा

ये जो चौड़ी सड़क है -
कुछ फर्लांग पर
जो बरगद देख रहे हो -
बस वहीँ उस की छाया में
एक छोटा-सा अहाता खींच
चबूतरे पर
स्थापित किया था माँ तुम्हे
आद्या -शक्ति
दुःख-विनाशिनी !
पेड़ के मूल पर
टकटकी बाँधे
घूरते नारिकेल
आते-जाते चढ़ावे !
अगरु, धूप, दीप
के गोचर भुलावे !
पेड़ की शाखाओं पर
रोली, कुमकुम लगे
लाल गहराए कलावे -
किसी दुखी की
निराश की
खोए की
भूले की
भटके की
मन्नतों के जाले!
कौन-सी मन्नत ?
किसकी?
सारे अंतर भूल
ये बरगद
कैसे टिका खड़ा है!
जैसे साम्राज्यवाद की नींव पर
प्रजातंत्र उठा है!
मंदिर से परे
घिसू-घिसुआ
काली छतरी खोल
बरगद की शाख की
अछूती छाँव में
रोज़ आ बैठता है -
लकड़ी की पेटी
उसमें सजी काली-भूरी
पोलिश की डिबियां
दो-चार ब्रुश
छोटी कीलें
पायताबा
कुछ चमरौधे
गुरगाबियाँ
नाना पैरों के नाप के कटे
चर्म - छिले, घिसे !
अपनी सधी आँखों से
दिनों को गाँठ
फटे-पुराने समय की मरम्मत करता
गाहे-बगाहे
क्षणों के गीत गाता
सालों से यहाँ पड़ा है !
पर अचानक
उस दिन रातों-रात
हमारी सड़क और चौड़ी हो गयी !
मंदिर के अहाते ने भी विस्तार पाया
और पेड़ की अछूती छाया ने
समेट लिए पैर पेट तक !
परवाह करता किसकी कब तक !
उस दिन मैंने पिघला कोलतार तो देखा
दूर तक फैला !
पर पोलिश की डिबिया
कहाँ खो गयी?
उसकी कोई टोह नहीं ?
सूरज का पैंडुलम
झूलता रहा
मौसम-चक्र टिक-टिक कर
किन सुइयों पर घूमता रहा !
पर घिसू तू गाहे-बगाहे भी न दीखा?
मैंने कब से एक धागा बाँध दिया है
बरगद की शाख पर !
भभूत दी है अगरु की राख पर !
इस सन्नाटे की भीड़ में
कहाँ तलाशूँ तुझे ?
इस भीड़ में मेरा इन्सान खो गया है!
तू किस छाँव जाकर सो गया है ?
अपर्णा
मेरी डायरी से

मेरी डायरी से -
बाहर टिकटघर की छोटी-सी खिड़की
खिड़की से झांकती
दो बूढ़ी आँखें !
छोटी-सी कतार
स्वदेशी-विदेशी सैलानियों की .
मैं भी टिकट खरीदती हूँ .
जनाब , ये कभी हवेली थी !
आज हैरिटेज है !
हमारी संस्कृति का बाहर बड़ा वेटेज है !
हवेली का विशाल द्वार !
समृद्ध भारत की परी-कथा -सा
समूची भव्यता के साथ
गौरव से खड़ा है !
मेरी संस्कृति
तेरा इतिहास
सोन-चिरैया होने का साक्ष्य देता -
खंडित-रक्षित मूर्तियों में
दीवारों की नक्काशी ,
पपड़ाये , झूलते प्लास्टर !
अदब से फैले बेल-बूटे!
बंद झरोखों में लगे
तिकोने,गोल,रंगीन शीशे !
और उनसे आती सूरज की किरणों से जूझता
हवेली में पड़ा है!
मैं पलभर के लिए इसका हिस्सा बन गयी हूँ !
कक्ष पर कक्ष !
तिलस्म पर तिलस्म !
कितने सारे क्लिक ..
सब कैद कर कैमरे में
एक विज़न को
कैनवास दे रही हूँ !!
ये कक्ष हवेली की विधवाओं का है -
एकदम परली तरफ ,
संसार से अलहदा !
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी उसकी रूह
मेरे चारों ओर चक्कर काटती है .
दबी सिसकी!
दबी कराह कहीं !
गुमनाम खोह से आती है ...
मैं भ्रम समझ बढ़ती हूँ!!
तभी मेरा आँचल कहीं अटक जाता है!
एक तस्वीर -
मुंडा सिर!
सूनी आँखें !
सदियों से नम !!
आँचल धीरे से खींच
तस्वीर पीछे छोड़
मुंडी आत्मा ले आगे बढ़ जाती हूँ !
मेरे पास समय कहाँ
कि नारी होने की समीक्षा करूँ ?
विक्षोभ से ओंठ काटूँ?
आँखों को भीग जाने दूँ?
मैं सैलानी हूँ !
अतीत को सराहने आई हूँ ,
घाव सहलाने नहीं !
तभी एक चमगादड़ सिर से गुज़र जाता है
गुज़रे ज़माने की तरह !
सब वहीँ छोड़
बाहर आती हूँ -
आह !
वाह!
हवेली के बाहर -
संकरी गली !
मटमैले बिन बुहारे घर !
चिम्बुक की तरह चिपकती कई आँखें !
ऊंट-गाड़ियों की झुन-झुन !
लटकते-झूलते तार !
इन पर झूलती गौरैया !
कहीं जंगले पर रोटी टूंगती गैया !
ठेलों पर लदा सामान !
रेलम-पेल !
ठेलम-ठेल!
और मेरा भारत महान !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अपर्णा
मैं रोज़ समेटती हूँ

भगवन ने हमारा जीवन किताब की तरह नहीं बनाया है , जिसे पढ़कर हम आगे तक को जान सकें. वह हमें रोज़ एक दिन कोरे कागज़ की तरह देता है जिसे हम अपने अनुसार भरते है और अंत में इन्ही कागजों की एक किताब तैयार होती है , जिसे आने वाली पीढ़ी पढ़ती और समझती है. मेरी ये रचना इसी भाव पर आधारित है.
मैं रोज़ समेटती हूँ
उस सुबह को
जो खाली पन्ने-सी आती है-
उजली! धवल! नरम !
मैं इस सुबह पर रोज़ कुछ लिखती हूँ -
उँडेलती हूँ
भावों की स्याही के
अक्षर आर्द्र , गरम .
सुबह तू रोज़ आनेवाला पन्ना है!
जिस पर मैंने कोई हाशिया नहीं खींचा
पर अपनी इबारत से
तेरा तन भर दिया
और इस पर जड़ा हर मोती
मेरी इबादत , तमन्ना बन गया .
मैं तुझे समेटकर
उस दिन समय को लौटाऊँगी -
जब तू मेरी जिल्द में बंधी किताब होगी
और तू मेरे नहीं हर पढ़नेवाले के हाथ होगी.
हर उँगली से गुज़र जायेगा सरिता तेरा प्रपात -
प्रवाह में गोल बहते पत्थर ,
उन पर जमी समय की काही ;
किनारे के वजूद को घोषित करते
पेड़ों की कतार
जिसकी डालियों को ट़ेर देती
खग-वृन्दों की गुहार.
कहीं सुबह की किरणों को पकड़ जाला बुनती मकड़ियाँ ;
भौंराते भ्रमर,
मधु-मक्खियों की शहद -पगी गुंजार .
रंभाती गायें ,
पिनपिनाते बछड़े , मेमनों का उदघोष .
चली हुई जीवन की छैनी के
आकार
कई प्रकार
और बुलबुलाभर जोश.
अम्लान उच्च शैलों का मुख-अभिराम
उनमे बहते ऊर्जा स्रोत महा-हिम-नद-धार .
कर रही घाटियों, मैदानों में जीवन साकार .
हरी दूब, हरे टापू
अन्यान्य
मारीच-से नेपथ्य में चीखते
विषम रेगिस्तान
और इस बलुआ को दुलारते
अखिल नखलिस्तान .
गाँवों के मटमैले चित्र अरूप
प्रकारांतर से पैबंद टंके शहर विरूप.
इन सब पर तनी आसमान की शुभ्र -कनात
और इसे छूकर आती
झोंके-सी सुबह -
जिसे देख मैं हठात !
'सुबह' तेरे हर पन्ने को
मिलेगा सत्कार-मान .
पीढ़ियों तक तू सरक जायेगी
लेकर नया आह्वान.
अपर्णा
अभी संवाद शेष है

कोई संवाद शेष है
कैंप के बाहर '
सुबह जब मैं कॉफ़ी का मग थामे
चहल-कदमी करते
चुस्कियां लेते,
पेड़ की पत्तियों में छिपी बुलबुल तेरा गीत सुनता था ,
तो न जाने क्यों मुझे लगता था
कि कोई संवाद होना अभी शेष है
और हमारे बीच कोई सूत्र एक है!!
आज जब मेरा सीना चीर कर
दुश्मन की गोलियां आर-पार हो गयीं हैं
और मेरी सांसे कुछ शेष रह गयी हैं .
तो बुलबुल...
वह सूत्र मेरे हाथ लग गया है ,
और संवाद अब ओंठ पर ढरक गया है.
मैं अपने संवाद तेरे गीतों में पिरोना चाहता हूँ ,
एक ख़त तेरे परों पर उंकेरना चाहता हूँ .
मगर तुम बारूद के आकाश से डर कर
चाँद की टहनी पर जा बैठी हो !
और हताश इस सूत्र को शून्य में ढूंढ़ रही हो !
मैं गाँव, घर ,डगर पीछे छोड़ आया था
पर हर छूटा लमहा तेरे गीत में पाया था .
तेरे गीत
माँ की टुहुक-से ममता भरे थे .
तुम्हारे गीत पत्नी की चिहुक -से प्रेम भरे थे .
तुम्हारे गीत बेटी की किलक-से बचपन भरे थे !
तुम चाँद छोड़ मेरी बांहों के नीड़ में आओ .
डर छोड़कर , संदेशों के तिनके ले जाओ .
मरने से पहले बड़ी याद आई है
वह गुलमोहर - उसकी छाँव !
छाँव में बसा महकता मेरा गाँव !
रहट-रहट मेरी सांस हुई !
छलक-छलक शेष आस हुई !
तू इन आस के तिनकों को
अपनी चोंच में दबा
हौले से ले जाना !
गुलमोहर की डाली पर!
लाल-लाल फूलों पर !
किसलय पत्तों पर !
घर के छप्पर पर !
द्वार-गली पर!
माँ के आँचल पर!
पत्नी की चूड़ी पर!
बिटिया के ओठों पर!
संवाद बना छोड़ आना
मेरी पार्थिव देह तिरंगे में
जब राजधानी आये -
तो बुलबुल
तू वहीँ-कहीं छाँव में
एक राग छेड़ना-
जिसमे टुहुक-टुहुक
चिहुक-चिहुक
किलक-किलक
यादों का राग हो
देश-रागिनी से दूर
अपना संसार हो!
अपर्णा
नमन उन वीरों को जो मर-मिटे इस ज़मीं के लिए.
Sunday, May 2, 2010
एक बार अपनाकर देखो

जीवन में कैसी देरी है ,
जीवन में कैसी जल्दी है ,
जीवन में क्या खो जाना है ,
जीवन में क्या मिल जाना है ,
मेरी आँखों से तुम देखो
जग जाना और पहचाना है.
नहीं अकेले इस सागर में
लहर-लहर का मिल जाना है.
मेरे शब्द उठा कर देखो
शब्द गीत हर हो जाना है.
सागर अपने मन -दर्पण में
चाँद समेटे रख सकता है ,
और हवाओं का ये आँचल
सुमन झोली में भर सकता है ,
फिर तुम क्यों नाराज़ खुदी से
एक सरल मुसकान बिखेरो ,
जगती के सुंदर जीवन से
सुंदर नयनों को न फेरो.
ये संसार देव नगर है ,
जिसमें मिलती कई डगर हैं .
रुके -खड़े क्यों !
क्या उलझन है !
अपने कदम बढ़ा कर देखो,
साथ चलेंगे कितने पग फिर
एक बार अपनाकर देखो!
कविता The World is too much with us का सीधा अनुवाद नहीं है . हाँ , मेरा कवि के ह्रदय में झांकने का दुस्साहस ज़रूर है.
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