
कोई संवाद शेष है
कैंप के बाहर '
सुबह जब मैं कॉफ़ी का मग थामे
चहल-कदमी करते
चुस्कियां लेते,
पेड़ की पत्तियों में छिपी बुलबुल तेरा गीत सुनता था ,
तो न जाने क्यों मुझे लगता था
कि कोई संवाद होना अभी शेष है
और हमारे बीच कोई सूत्र एक है!!
आज जब मेरा सीना चीर कर
दुश्मन की गोलियां आर-पार हो गयीं हैं
और मेरी सांसे कुछ शेष रह गयी हैं .
तो बुलबुल...
वह सूत्र मेरे हाथ लग गया है ,
और संवाद अब ओंठ पर ढरक गया है.
मैं अपने संवाद तेरे गीतों में पिरोना चाहता हूँ ,
एक ख़त तेरे परों पर उंकेरना चाहता हूँ .
मगर तुम बारूद के आकाश से डर कर
चाँद की टहनी पर जा बैठी हो !
और हताश इस सूत्र को शून्य में ढूंढ़ रही हो !
मैं गाँव, घर ,डगर पीछे छोड़ आया था
पर हर छूटा लमहा तेरे गीत में पाया था .
तेरे गीत
माँ की टुहुक-से ममता भरे थे .
तुम्हारे गीत पत्नी की चिहुक -से प्रेम भरे थे .
तुम्हारे गीत बेटी की किलक-से बचपन भरे थे !
तुम चाँद छोड़ मेरी बांहों के नीड़ में आओ .
डर छोड़कर , संदेशों के तिनके ले जाओ .
मरने से पहले बड़ी याद आई है
वह गुलमोहर - उसकी छाँव !
छाँव में बसा महकता मेरा गाँव !
रहट-रहट मेरी सांस हुई !
छलक-छलक शेष आस हुई !
तू इन आस के तिनकों को
अपनी चोंच में दबा
हौले से ले जाना !
गुलमोहर की डाली पर!
लाल-लाल फूलों पर !
किसलय पत्तों पर !
घर के छप्पर पर !
द्वार-गली पर!
माँ के आँचल पर!
पत्नी की चूड़ी पर!
बिटिया के ओठों पर!
संवाद बना छोड़ आना
मेरी पार्थिव देह तिरंगे में
जब राजधानी आये -
तो बुलबुल
तू वहीँ-कहीं छाँव में
एक राग छेड़ना-
जिसमे टुहुक-टुहुक
चिहुक-चिहुक
किलक-किलक
यादों का राग हो
देश-रागिनी से दूर
अपना संसार हो!
अपर्णा
नमन उन वीरों को जो मर-मिटे इस ज़मीं के लिए.
अपर्णा, क्या लिखूँ? अभी तक आँखें नम हैं । मैं सैनिक पत्नी हूँ, मैंने यह राग अनगिन बार सुना है । कभी पत्नी की मूक आँखों में पढ़ा है और कभी माँ की सूनी गोद में कुलबुलाता देखा है । मेरा तो रोम-रोम उन वीरों को प्रणाम करता है । धन्यवाद आपका उन्हें याद करने के लिये ।
ReplyDeleteस्स्नेह
शशि पाधा
दुर्गम प्रदेशों एवं विषम परिस्थितियों के मध्य सदैव सतर्क देश के इन प्रहरियों को मेरा नमन
ReplyDeleteदेशभक्त कवियित्री अपर्णा जी को भी मेरा प्रणाम