Sunday, May 9, 2010

मैं रोज़ समेटती हूँ





भगवन ने हमारा जीवन किताब की तरह नहीं बनाया है , जिसे पढ़कर हम आगे तक को जान सकें. वह हमें रोज़ एक दिन कोरे कागज़ की तरह देता है जिसे हम अपने अनुसार भरते है और अंत में इन्ही कागजों की एक किताब तैयार होती है , जिसे आने वाली पीढ़ी पढ़ती और समझती है. मेरी ये रचना इसी भाव पर आधारित है.

मैं रोज़ समेटती हूँ
उस सुबह को
जो खाली पन्ने-सी आती है-
उजली! धवल! नरम !
मैं इस सुबह पर रोज़ कुछ लिखती हूँ -
उँडेलती हूँ
भावों की स्याही के
अक्षर आर्द्र , गरम .

सुबह तू रोज़ आनेवाला पन्ना है!
जिस पर मैंने कोई हाशिया नहीं खींचा
पर अपनी इबारत से
तेरा तन भर दिया
और इस पर जड़ा हर मोती
मेरी इबादत , तमन्ना बन गया .

मैं तुझे समेटकर
उस दिन समय को लौटाऊँगी -
जब तू मेरी जिल्द में बंधी किताब होगी
और तू मेरे नहीं हर पढ़नेवाले के हाथ होगी.

हर उँगली से गुज़र जायेगा सरिता तेरा प्रपात -
प्रवाह में गोल बहते पत्थर ,
उन पर जमी समय की काही ;
किनारे के वजूद को घोषित करते
पेड़ों की कतार
जिसकी डालियों को ट़ेर देती
खग-वृन्दों की गुहार.

कहीं सुबह की किरणों को पकड़ जाला बुनती मकड़ियाँ ;
भौंराते भ्रमर,
मधु-मक्खियों की शहद -पगी गुंजार .
रंभाती गायें ,
पिनपिनाते बछड़े , मेमनों का उदघोष .

चली हुई जीवन की छैनी के
आकार
कई प्रकार
और बुलबुलाभर जोश.

अम्लान उच्च शैलों का मुख-अभिराम
उनमे बहते ऊर्जा स्रोत महा-हिम-नद-धार .
कर रही घाटियों, मैदानों में जीवन साकार .

हरी दूब, हरे टापू
अन्यान्य
मारीच-से नेपथ्य में चीखते
विषम रेगिस्तान
और इस बलुआ को दुलारते
अखिल नखलिस्तान .

गाँवों के मटमैले चित्र अरूप
प्रकारांतर से पैबंद टंके शहर विरूप.
इन सब पर तनी आसमान की शुभ्र -कनात
और इसे छूकर आती
झोंके-सी सुबह -
जिसे देख मैं हठात !
'सुबह' तेरे हर पन्ने को
मिलेगा सत्कार-मान .
पीढ़ियों तक तू सरक जायेगी
लेकर नया आह्वान.
अपर्णा

2 comments:

  1. Bahut sunder Aparna ji.......Bahut gahre aur meaningful bhavon se paripurn hai kavita.
    Mubarak
    By the way Aparnaji how can we write with hindi fonts. Cud u tell pl?
    Suresh Agrawal

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  2. अद्भुत और गहन विचार से सुसज्जित कविता अपर्णा जी आपका धन्यवाद

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