
हाथ में दर्पण लिए
युगों को देख रही हूँ -
महा आवागमन !
पुरातन! सनातन !
धर्मों के आचार -विचार !
आतताइयों के अनाचार !
ताज -तख्तों के वैभव -
गर्त में दबे हजारों मुकुट !
विजय के दर्प में झूलती सत्ताएँ !
जन-जन का प्रलाप-विलाप !
नारी के क्रंदन में झूलती वन-लताएँ !
विपदाएँ, प्रलय !
टूटते प्रासादों के रजत-कंगूरे !
राजनीति के दांव-पेच अधूरे !
इतिहास की सीलन में
उहापोह में श्वांस लेती संस्कृतियाँ
समय की कला-कृतियाँ
और हर युग की नाना विकृतियाँ !
ये दर्पण मेरे दृष्टिपथ में
कई काल खड़े कर गया -
और उन्हीं कालों के बीच
कभी स्पष्ट , कभी धुंधला
मेरे अस्तित्व का
अनमोल अक्स दे गया !
न जाने कितने नायक
महानायक ?
न जाने कितने पल-समय ?
रील बनकर इस दर्पण से गुज़र गए
और इस रील में तलाशती रही अपनी पहचान !!
क़ि मैं कहाँ हूँ इस भीड़ में ?
कौन हूँ इस भीड़ में ?
क्यों हूँ इस भीड़ में ?
हजारों प्रश्नों में तराशती
देख रही हूँ खुद को अनजान .
संसार के इस दर्पण में
जो आज मेरा बिम्ब है
वह कल का होगा .
मैं सम्पूर्ण देखूंगी
चटखते अतीत में
सुन्दर वर्तमान
बनते भविष्यों के सार्थक प्रमाण !
आते-जाते बिम्ब होंगे
मेरा दर्पण किसी और के हाथ होगा
पर जो न होने पर भी मेरे
समय को मेरा आभास होगा .
अपर्णा
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ReplyDeleteमोरा मन दर्पण कहलाये...
ReplyDeleteभले-बुरे सारे कर्मो को,
देखे और दिखाए...
अपर्णा जी... प्रशंसनीय.